रचनाकार: धूमिल
वहाँ न जंगल है न जनतंत्रभाषा और गूँगेपन के बीच कोईदूरी नहीं है।एक ठंडी और गाँठदार अंगुली माथा टटोलती है।सोच में डूबे हुए चेहरों औरवहां दरकी हुई ज़मीन मेंकोई फ़र्क नहीं हैं।वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर।बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं।खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है।वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाटऔर ईमानदारी की तरह असफल है।हाय! इसके बादकरम जले भाइयों के लिए जीने का कौन-सा उपायशेष रह जाता है, यदि भूख पहले प्रदर्शन हो और बाद मेंदर्शन बन जाय।और अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि सच को भी सबूत के बिनाबचा पाना मुश्किल है।
साभार कविताकोश
Wednesday, March 4, 2009
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